गंतव्य /
Tuesday 27 October 2020
कविता-गंतव्य/आभा दवे
गंतव्य /
Friday 23 October 2020
कविता-अलौकिक /आभा दवे
अलौकिक
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ज्ञान विवेक की देवी
माँ सरस्वती, वीणावादिनी
अलौकिक ज्ञान की ज्योति जगा।
अपनी कृपा बरसा कर
जीवन में नया संगीत जगा
जिसकी तान पर जीवन अलौकिक हो।
हंसवाहिनी, संगीत कला और विद्या
का ऐसा संगम हो कि उस नदी की
धार ऐसी बहे जो अलौकिक हो।
श्वेतांबरी, मेरी वाणी में
वो शक्ति का संचार हो
जिसके बोलो में सत्य का
अलौकिक आभास हो।
महासरस्वती अंबिका
मेरे अंतःकरण को निर्मल कर
अपनी भव्यता दो जो अलौकिक हो।
हे भगवती, स्मरण शक्ति को
वह बल प्रदान कर जिसमें
आपकी स्तुति नित्य नवीन
अलौकिक हो।
आभा दवे
Wednesday 14 October 2020
कविता-नारी शक्ति/आभा दवे
नारी शक्ति
Monday 12 October 2020
शायर ,गीतकार,कवि निंदा फ़ाज़ली जी की रचनाएँ
निदा फ़ाज़ली जी के जन्म दिवस पर उनकी कुछ रचनाएँ
जन्म | 12 अक्तूबर 1938 |
निधन | 08 फ़रवरी 2016 |
जन्म स्थान | दिल्ली, भारत |
कुछ प्रमुख कृतियाँ | |
आँखों भर आकाश, मौसम आते जाते हैं , खोया हुआ सा कुछ, लफ़्ज़ों के फूल, मोर नाच, आँख और ख़्वाब के दरमियाँ, सफ़र में धूप तो होगी | |
विविध | |
1998 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित |
कभी धरती के, कभी चाँद नगर के हम हैं...
अनुगूँज की यादें कविता/आभा दवे
Friday 9 October 2020
गांधी जी के बंदर कविता /आभा दवे
कवि वृंद के दोहे
कवि वृंद परिचय एवं उनके सुप्रसिद्ध दोहे
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हिन्दी साहित्य के रीतिकालीन कवियों में वृन्द जी का महत्वपूर्ण स्थान है। वृन्द जी ने अपनी काव्य रचनाओं के माध्यम से लोगों के दिल में अपनी एक अलग छाप छोड़ी है। आज भी उनकी दोहे उतने ही सार्थक जितने पहले हुआ करती थे ।आइए जानते हैं कवि वृंद और दोहे के बारे में ।
वृंद का जी का जन्म 1643 ईसवी में राजस्थान के जोधपुर जिले के मेड़ता नामक गांव में हुआ था। इनका पूरा नाम वृन्दावनदास था। वृन्द जी की माता का नाम कौशल्या था और पत्नी का नाम नवंरगदे था।
महज 10 साल की उम्र में वृन्द जी काशी आए थे और यहीं पर इन्होंने तारा जी नाम के एक पंडित से साहित्य, दर्शन की शिक्षा प्राप्त की थी। इसके साथ ही वृन्द जी को व्याकरण, साहित्य, वेदांत, गणित आदि का ज्ञान प्राप्त किया और काव्य रचना सीखी।
वृन्द जी ने अपनी रचनाएं सरल, सुगम, मधुर और आसान भाषा में लिखी हैं। वृन्द जी कविता करने का शौक, अपने पिता से आया। इनके पिता भी कविता लिखा करते थे। हिन्दी साहित्य के महान कवि वृन्द जी मुगल सम्राट औरंगजेब के दरबारी कवि भी थे।
वृन्द जी के नीति विषयक दोहे बहुत सुंदर हैं और काफी मशहूर भी हैं। वृन्द जी की रचनाएं भी काफी प्रसिद्ध हैं। इनकी प्रमुख रचनाओं में ‘वृंद-सतसई, ‘पवन-पचीसी, ‘श्रंगार-शिक्षा, अलंकार सतसई, भाव पंचाशिका, रुपक वचनिका, सत्य स्वरूप और ‘हितोपदेश मुख्य हैं।
‘वृंद-सतसई कवि वृन्द जी की सबसे प्रसद्धि रचनाओं में से एक है जो नीति साहित्य का श्रंगार है। जिसमें 700 दोहे हैं, इसकी भाषा अत्यंत सरल और सुगम है जो कि आसानी से समझी जा सकती है। इन्होंने अपनी रचनाओं में कहावतों और मुहावरों का भी सुंदर ढंग से इस्तेमाल किया है।
कवि वृंद के कुछ दोहे
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1)रागी अवगुन न गिनै, यहै जगत की चाल ।
देखो, सबही श्याम को, कहत ग्वालन ग्वाल ॥
2)अपनी पहुँच विचारिकै, करतब करिये दौर ।
तेते पाँव पसारिये, जेती लाँबी सौर ॥
3)कैसे निबहै निबल जन, करि सबलन सों गैर ।
जैसे बस सागर विषै, करत मगर सों बैर॥
4)विद्या धन उद्यम बिना, कहो जू पावै कौन ।
बिना डुलाये ना मिलै, ज्यौं पंखा की पौन ॥
5)बनती देख बनाइये, परन न दीजै खोट ।
जैसी चलै बयार तब, तैसी दीजै ओट ॥
6)मधुर वचन ते जात मिट, उत्तम जन अभिमान ।
तनिक सीत जल सों मिटै, जैसे दूध उफान ॥
7)सबै सहायक सबल के, कोउ न निबल सहाय ।
पवन जगावत आग को, दीपहिं देत बुझाय ॥
8)अति हठ मत कर हठ बढ़े, बात न करिहै कोय ।
ज्यौं –ज्यौं भीजै कामरी, त्यौं-त्यौं भारी होय ॥
9)लालच हू ऐसी भली, जासों पूरे आस ।
चाटेहूँ कहुँ ओस के, मिटत काहु की प्यास ॥
10)गुन-सनेह-जुत होत है, ताही की छबि होत ।
गुन-सनेह के दीप की, जैसे जोति उदोत ॥
11)ऊँचे पद को पाय लघु, होत तुरत ही पात ।
घन तें गिरि पर गिरत जल, गिरिहूँ ते ढरि जात ॥
12)आए आदर न करै, पीछे लेत मनाय ।
घर आए पूजै न अहि, बाँबी पूजन जाय ॥
13)उत्तम विद्या लीजिए, जदपि नीच पै होय ।
पर्यौ अपावन ठौर को, कंचन तजत न कोय ॥
14)दुष्ट न छाड़ै दुष्टता, बड़ी ठौरहूँ पाय ।
जैसे तजै न स्यामता, विष शिव कण्ठ बसाय ॥
15)बड़े-बड़े को बिपति तैं, निहचै लेत उबारि ।
ज्यों हाथी को कीच सों, हाथी लेत निकारि ॥
16)दुष्ट रहै जा ठौर पर, ताको करै बिगार ।
आगि जहाँ ही राखिये, जारि करैं तिहिं छार ॥
17)ओछे नर के चित्त में, प्रेम न पूर्यो जाय ।
जैसे सागर को सलिल, गागर में न समाय ॥
18)जाकौ बुधि-बल होत है, ताहि न रिपु को त्रास ।
घन –बूँदें कह करि सके, सिर पर छतना जास ॥
19)सरसुति के भंडार की, बड़ी अपूरब बात ।
जौं खरचे त्यों-त्यों बढ़ै, बिन खरचै घट जात ॥
20)कारज धीरे होत है, काहे होत अधीर ।
समय पाय तरुवर फरै, केतिक सींचौ नीर ॥
21)उद्यम कबहूँ न छाड़िये, पर आसा के मोद ।
गागर कैसे फोरिये, उनयो देकै पयोद ॥
22)क्यों कीजे ऐसो जतन, जाते काज न होय ।
परबत पर खोदै कुआँ, कैसे निकरै तोय ॥
23)हितहू भलो न नीच को, नाहिंन भलो अहेत ।
चाट अपावन तन करै, काट स्वान दुख देत ॥
24)चतुर सभा में कूर नर, सोभा पावत नाहिं ।
जैसे बक सोहत नहीं, हंस मंडली माहिं ॥
25)हीन अकेलो ही भलो, मिले भले नहिं दोय ।
जैसे पावक पवन मिलि, बिफरै हाथ न होय ॥
26)फल बिचार कारज करौ, करहु न व्यर्थ अमेल ।
तिल ज्यौं बारू पेरिये, नाहीं निकसै तेल ॥
27)ताको अरि का करि सकै, जाकौ जतन उपाय ।
जरै न ताती रेत सों, जाके पनहीं पाय ॥
28)हिये दुष्ट के बदन तैं, मधुर न निकसै बात ।
जैसे करुई बेल के, को मीठे फल खात ॥
29)ताही को करिये जतन, रहिये जिहि आधार ।
को काटै ता डार को, बैठै जाही डार ॥
30)अति परिचै ते होत है, अरुचि अनादर भाय।
मलयागिरि की भीलनी, चंदन देत जराय॥
31)करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात तें, सिल पर परत निसान।।
-कवि वृंद
Wednesday 7 October 2020
कविता-सूरज-चंदा /आभा दवे
चीरहरण -कविता/आभा दवे
कविता/अनाड़ी-खिलाड़ी/आभा दवे
कविता-जीवन-मृत्यु /आभा दवे
जीवन- मृत्यु
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लेते हैं सब जन्म इस धरा पर
अलग-अलग रूप रंग लिए