Thursday 4 July 2019

कविता -सृष्टि

सृष्टि  / आभा दवे 
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कभी-कभी सृष्टि को  निहारा करो

इसमें भी खुद को पाया करो

 ये  हरी -भरी धरती सुंदर

श्रृंगार कर रोज़ सजती 

नदी , सागर , झरने , पर्वत,

पेड़-पौधे से खुद को ढकती

इन्हीं का श्रृंगार कर सजती

उसके इस रूप को भी सहारा करो

कभी-कभी सृष्टि को निहारा करो

ऊपर फैला आसमान लिए सूरज-चाँद ,तारे

जो लगते सभी को प्यारे

देते हमें उजाला,चाँदनी और खुशी

तो इनसे भी रिश्ता निभाया करो

इनका गुणगान भी गाया करो

कभी-कभी सृष्टि को निहारा करो

उड़ान भरते सभी कल्पना की रोज ही

कभी हकीकत की दुनिया में जाया करो

दीन- दुखियों को गले लगाया करो

मासूम बच्चों के होठों पर खिली रहे हँसी

ऐसा कोई गीत सुनाया करो

कभी-कभी सृष्टि को निहारा करो

एक ईश्वर की हम सब संतान

न धर्मों में खुद को बाँटा करो

हिल -मिल रहे सभी यहाँ

सभी को अपना बनाया करो

प्रेम से गले लगाया करो 

गमों में भी मुस्कुराया करो

कभी-कभी सृष्टि को निहारा करो

बढ़ते जाएँ कदम आगे सभी के

नीचे सर न झुकाया करो

कदमों में ही है मंजिल 

उस मंजिल से न किनारा करो

खुद पर रख  अटल विश्वास 

खुद का अमर गान गाया करो

कभी-कभी सृष्टि को निहारा करो ।




आभा दवे

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