सृष्टि / आभा दवे
-----————-
कभी-कभी सृष्टि को निहारा करो
इसमें भी खुद को पाया करो
ये हरी -भरी धरती सुंदर
श्रृंगार कर रोज़ सजती
नदी , सागर , झरने , पर्वत,
पेड़-पौधे से खुद को ढकती
इन्हीं का श्रृंगार कर सजती
उसके इस रूप को भी सहारा करो
कभी-कभी सृष्टि को निहारा करो
ऊपर फैला आसमान लिए सूरज-चाँद ,तारे
जो लगते सभी को प्यारे
देते हमें उजाला,चाँदनी और खुशी
तो इनसे भी रिश्ता निभाया करो
इनका गुणगान भी गाया करो
कभी-कभी सृष्टि को निहारा करो
उड़ान भरते सभी कल्पना की रोज ही
कभी हकीकत की दुनिया में जाया करो
दीन- दुखियों को गले लगाया करो
मासूम बच्चों के होठों पर खिली रहे हँसी
ऐसा कोई गीत सुनाया करो
कभी-कभी सृष्टि को निहारा करो
एक ईश्वर की हम सब संतान
न धर्मों में खुद को बाँटा करो
हिल -मिल रहे सभी यहाँ
सभी को अपना बनाया करो
प्रेम से गले लगाया करो
गमों में भी मुस्कुराया करो
कभी-कभी सृष्टि को निहारा करो
बढ़ते जाएँ कदम आगे सभी के
नीचे सर न झुकाया करो
कदमों में ही है मंजिल
उस मंजिल से न किनारा करो
खुद पर रख अटल विश्वास
खुद का अमर गान गाया करो
कभी-कभी सृष्टि को निहारा करो ।
आभा दवे
No comments:
Post a Comment