Tuesday 14 June 2022

संत कबीर जयंती पर विशेष

 संत कबीर जयंती पर

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 संत कबीर जी की आज जयंती है (14 जून) ऐसा माना जाता है कि कबीर जी का जन्म संवत्‌ 1455 की ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को हुआ था। इसीलिए ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा के दिन देश भर में कबीर जयंती मनाई जाती है। कबीरदास जी का लालन -पालन जुलाहा दंपति नीरू और नीमा ने किया। कबीरदास जी की शिक्षा नहीं हो सकी पर उनकी वाणी ने समाज के लोगों में जागरूकता पैदा की एवं अपने दोहों के माध्यम से समाज में फैली कुरीतियों का विरोध किया। वे जाति-पाँति, छुआछूत, ढोंग, आडम्बर के विरोधी थे। वे हिन्दू और मुसलमान दोनों की गलत बातों का सदा ही विरोध करते थे। उन्होंने निस्वार्थ प्रेम एवं मानवता के हितों की बात का सदा समर्थन किया और अपनी बात पर सदा अडिग रहे। लोगों का विश्वास था कि काशी में मरने से मुक्ति मिलती है और मगहर में मरने वाला नरक में जाता है। कबीर दास जी इस अंधविश्वास का खंडन करने के लिए अंतिम समय में मगहर चले गए थे। कबीर जी का देहांत वहीं हुआ संवत् 1575 में। कबीर जी की पत्नी का नाम लोई था। उनके पुत्र का नाम कमाल एवं पुत्री का नाम कमाली था। कबीर जी अपने पुत्र कमाल से अप्रसन्न रहते थे इसका उल्लेख उनके इस दोहे से मिलता है-
 
बूडा़ वंश कबीर का, का उपजे पूत कमाल।
हरि का सुमिरन छोड़कर घर से आया माल।।

कबीर दास जी ने स्वामी रामानंद जी को अपना गुरु बनाया था। गुरु बनाने का तरीका भी बड़ा ही दिलचस्प है। कबीर दास जी एक दिन प्रातः काल अंधेरे में ही काशी के  'पंचगंगा घाट' की सीढ़ी पर जा लेटे। रामानंद जी प्रतिदिन वहाँ स्नान करने आते थे। अंधेरे में उनका पैर कबीर जी के ऊपर पड़ गया, जिसके कारण सहसा उनके मुख से 'राम- राम 'शब्द निकल गया। कबीर दास जी ने 'राम' शब्द को अपना गुरु मंत्र मान लिया और वे रामानंद जी के शिष्य बन गए। रामानंद जी ने कबीर जी की गुरु भक्ति देखकर उन्हें अपना शिष्य स्वीकार कर लिया।

 कवि कबीर दास पढ़े-लिखे नहीं थे अतः उन्होंने स्वयं कोई पुस्तक नहीं लिखी। उनके शिष्य धर्मदास ने 'बीजक' के नाम से कबीर जी की सब वाणियों  का संग्रह किया। कबीर दास जी ने जनसाधारण की भाषा का प्रयोग किया है ताकि उनकी वाणी जनसाधारण तक पहुँच सके। कबीर जी के दोहे सच्चे हृदय की पुकार हैं। कबीर जी भगवान के अनन्य भक्त थे और उनकी भक्ति उनके दोहों में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।

कबीर दास जी को नमन करते हुए प्रस्तुत है उनके कुछ दोहे जो आज भी लोगों का मार्गदर्शन करते हैं 🙏🙏

1) तिनका कबहुँ ना निंदिये जो पांव तले होय।
    कबहुँ  उड़  आखों  पड़े  पीर घनेरी होय।।

अर्थ- तिनका को छोटा ना समझो चाहे वह आपके पैर के नीचे ही हो क्योंकि वह उड़ कर आँख में चला गया तो बहुत कष्ट देता है।

2)माला फेरत जुग भया फिरा ना मन का फेर।
   कर का मनका  डार दे मन का मन का फेर।।

अर्थ-कबीरदास जी कहते हैं कि माला फेरते युग बीत गया तब भी मन का कपट दूर नहीं हुआ। मनुष्य हाथ के मनका को छोड़  अपने मन रुपी मनके को फेर अर्थात मन सुधार कर।

3) धीरे धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय।
   माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आए फल होय।।

अर्थ-हे मन धीरे -धीरे सब कुछ हो जाएगा । माली सैकड़ों घड़े पानी पेड़ में देता है पर फल ऋतु आने पर ही लगता है।

4) माया मरी न मन मरा मर मर गया शरीर।
   आशा तृष्णा ना मरी कह गए दास कबीर।।

अर्थ-कबीर जी कहते हैं कि मनुष्य का मन तथा उसमें बसी माया कभी नहीं मरते न ही उसकी आशा तथा इच्छाएँ मरती हैं  केवल शरीर मरता है इस लिए वह दुख वहन करता है।

5) माटी कहे कुम्हार से तू क्यों रूंदे मोय ।
      एक दिन ऐसा होएगा मैं रोंदूंगी तोय।।

अर्थ-मिट्टी कुम्हार से कहती है कि तू मुझे क्यों रौंदता है, एक दिन ऐसा आएगा कि मैं तुझे रौंदूँगी।

6) काल करे सो आज कर आज करे सो अब।
     पल  में  प्रलय होयगी बहुरि करेगा कब।।

अर्थ-जो कल करना है वह आज कर ले और जो आज करना है वह अभी कर, पल भर में अगर कुछ हो गया तो फिर कब करेगा।

7) दुर्बल को न सताइए जाकी मोटी हाय।
     बिना जीव की सांस सों लोह भस्म हो जाए।।

अर्थ-कमजोर को कभी सताना नहीं चाहिए जिसकी हाय बहुत बड़ी होती है जैसे देखा होगा बिना जीव की धोंकनी की साँस से लोहा भी भस्म हो जाता है।

8) ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय।
   औरन को शीतल करे आपा शीतल होय।।
 
अर्थ-मन से घमंड को बिसार कर ऐसी वाणी बोलनी चाहिए जो दूसरों को शीतल करे और मनुष्य खुद भी शांत हो जाए।

9) क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पात।
   कहा विष्णु का घट गयो  जो भृगु ने मारी लात।।

अर्थ-छोटे चाहे जितना उत्पात करें परंतु बड़ों को क्षमा रखनी चाहिए । विष्णु का क्या घट गया जो भृगु ने लात मार दी।

10) बाहर क्या दिखलाये अंतर जपिये राम।
     कहा काज  संसार से तुझे धनी से काम।।

अर्थ-तुझे संसार के दिखावे से क्या काम तुझे तो अपने भगवान से काम है इसलिए गुप्त जाप कर।

11) बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
       जो दिल खोजा आपना ,मुझसे बुरा ना कोय।।

अर्थ-कबीर जी कहते हैं जब मैं बुरा देखने गया तो मुझे कोई बुरा  नहीं मिला जब मैंने अपने मन को टटोला तब लगा मुझसे बुरा कोई नहीं है।

12) पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
       ढाई आखर प्रेम का,  पढ़े सो पंडित होय।।
  
अर्थ-बड़ी-बड़ी पोथी पढ़ने से कोई पंडित नहीं हो जाता पर प्रेम का ढाई अक्षर का ज्ञान होने से पंडित बन जाता है।

13) जब मैं था तब गुरु नहीं अब गुरु है मैं नाय।
      प्रेम गली अति सांकरी तामें दो न समांय।।

अर्थ- जब मेरे अंदर अहंकार था तब परमात्मा नहीं था अब परमात्मा है तो  अंहकार मिट गया यानि परमात्मा के दर्शन से अंहकार मिट जाता है।

14)जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।
    मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।। 

अर्थ-जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ  पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है। लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते। 

15) साईं इतना दीजिए, जामें कुटुम समाय।
       मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाए।।

अर्थ-कबीरदास जी कहते हैं परमात्मा तुम मुझे इतना दो कि जिसमें परिवार का गुजारा चल जाए मैं भी भूखा न रहूँ और साधु भी भूखा न जाए।

16)आये हैं सो जायेंगे राजा रंक फकीर।
      एक सिहासन चढ़ि चले एक बंधे जात जंजीर।।

अर्थ-जो आया है वह दुनिया से जरूर जाएगा चाहे राजा हो या कंगाल, फकीर हो ।  एक तो सिहासन पर जाएँगे और एक जंजीरों से बंधा हुआ। अर्थात जो भले काम करने वाले हैं वो सिंहासन पर और जो खोटे काम करेंगे वह जंजीर से बँधकर जाएँगे।

प्रस्तुति/संकलन
आभा दवे
मुंबई
     

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