Tuesday 27 October 2020

कविता-गंतव्य/आभा दवे


 गंतव्य / 

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सारे रास्ते हो गए हैं बंद
कोरोना से कर रहे द्वंद
गंतव्य तक पहुँचना दुश्वार 
सभी कुछ चल रहा है मंद।

अठखेलियाँ कर रही जिंदगी
बस रह गई है अब तो बंदगी
खामोश लब बेचैन है मन सभी
हौले- हौले से समा रही सादगी।

पर्व ,त्यौहार है फीके- फीके
आगे आएँगे फिर कभी मौके
एक - दूजे को सभी समझा रहे
गंतव्य भी सिखा रहा है सलीके ।

आभा दवे
मुंबई 

Friday 23 October 2020

कविता-अलौकिक /आभा दवे

 अलौकिक

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ज्ञान विवेक की देवी

माँ सरस्वती, वीणावादिनी

अलौकिक ज्ञान की ज्योति जगा।


अपनी कृपा बरसा कर

जीवन में नया संगीत जगा

जिसकी तान पर जीवन अलौकिक हो।


हंसवाहिनी, संगीत कला और विद्या

का ऐसा संगम हो कि उस नदी की

धार ऐसी बहे जो अलौकिक हो।


श्वेतांबरी, मेरी वाणी में

वो शक्ति का संचार हो

जिसके बोलो में सत्य का

अलौकिक आभास हो।


महासरस्वती अंबिका

मेरे अंतःकरण को निर्मल कर

अपनी भव्यता दो जो अलौकिक हो।


हे भगवती, स्मरण शक्ति को

वह बल प्रदान कर जिसमें

आपकी स्तुति नित्य नवीन

अलौकिक हो।

आभा दवे


Wednesday 14 October 2020

कविता-नारी शक्ति/आभा दवे

 नारी शक्ति

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नारी शक्ति नारी सृष्टि
फिर भी है लाचार खड़ी
मौन तमाशा देख रही है
घर-घर और गली -गली।

नवरात्रि में पूजी जाती
नौ रूपों में अद्भुत शक्ति
अबोध बालिका देवी स्वरूप
सभी को भाता यह सुंदर रूप।

फिर क्यों होता है इनका अपमान
सहती दुख बालिका खोती मान
अपनों से ही डरती- छुपती रहती
क्या यही है नारी शक्ति का सम्मान?

स्वयंसिद्धा अब बन जाना होगा
खुद का ही सम्मान बढ़ाना होगा
नारी को नारी संग मिलकर ही
शक्ति का दीप हर घर जलाना होगा।

आभा दवे
14-10-2020 
बुधवार

Monday 12 October 2020

शायर ,गीतकार,कवि निंदा फ़ाज़ली जी की रचनाएँ

 निदा फ़ाज़ली जी के जन्म दिवस पर उनकी कुछ रचनाएँ 

जन्म
12 अक्तूबर 1938
निधन
08 फ़रवरी 2016
जन्म स्थान
दिल्ली, भारत
कुछ प्रमुख कृतियाँ
आँखों भर आकाशमौसम आते जाते हैं खोया हुआ सा कुछ, लफ़्ज़ों के फूल, मोर नाच, आँख और ख़्वाब के दरमियाँ, सफ़र में धूप तो होगी
विविध
1998 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित

निदा फ़ाज़ली जी की रचनाएँ
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1)अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं 

पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है
पने ही घर में, किसी दूसरे घर के हम हैं 

वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से
किसको मालूम, कहाँ के हैं, किधर के हम हैं 

कभी धरती के, कभी चाँद नगर के हम हैं...

जिस्म से रूह तलक अपने कई आलम हैं
कभी धरती के, कभी चाँद नगर के हम हैं 

चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब
सोचते रहते हैं, किस राहगुज़र के हम हैं 

गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम
हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं ।

2)गरज बरस प्यासी धरती पर फिर पानी दे मौला
चिड़ियों को दाना, बच्चों को गुड़धानी दे मौला

दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहाँ होता है
सोच समझवालों को थोड़ी नादानी दे मौला

फिर रोशन कर ज़हर का प्याला चमका नई सलीबें
झूठों की दुनिया में सच को ताबानी दे मौला

फिर मूरत से बाहर आकर चारों ओर बिखर जा
फिर मंदिर को कोई मीरा दीवानी दे मौला

तेरे होते कोई किसी की जान का दुश्मन क्यों हो
जीने वालों को मरने की आसानी दे मौला ।

3)वो शोख शोख नज़र सांवली सी एक लड़की
जो रोज़ मेरी गली से गुज़र के जाती है

सुना है वो किसी लड़के से प्यार करती है
बहार हो के, तलाश-ए-बहार करती है

न कोई मेल न कोई लगाव है लेकिन न जाने क्यूँ
बस उसी वक़्त जब वो आती है

कुछ इंतिज़ार की आदत सी हो गई है
मुझे
एक अजनबी की ज़रूरत हो गई है मुझे

मेरे बरांडे के आगे यह फूस का छप्पर
गली के मोड पे खडा हुआ सा एक पत्थर

वो एक झुकती हुई बदनुमा सी नीम की शाख
और उस पे जंगली कबूतर के घोंसले का निशाँ

यह सारी चीजें कि जैसे मुझी में शामिल हैं
मेरे दुखों में मेरी हर खुशी में शामिल हैं

मैं चाहता हूँ कि वो भी यूं ही गुज़रती रहे
अदा-ओ-नाज़ से लड़के को प्यार करती रहे।

4) सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो
   सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो

इधर उधर कई मंज़िल हैं चल सको तो चलो
बने बनाये हैं साँचे जो ढल सको तो चलो

किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं
तुम अपने आप को ख़ुद ही बदल सको तो चलो

यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिराके अगर तुम सम्भल सको तो चलो

यही है ज़िन्दगी कुछ ख़्वाब चन्द उम्मीदें
इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो

हर इक सफ़र को है महफ़ूस रास्तों की तलाश
हिफ़ाज़तों की रिवायत बदल सको तो चलो

कहीं नहीं कोई सूरज, धुआँ धुआँ है फ़िज़ा
ख़ुद अपने आप से बाहर निकल सको तो चलो

5)कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता
 
बुझा सका है भला कौन वक़्त के शोले
ये ऐसी आग है जिसमें धुआँ नहीं मिलता

तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो
जहाँ उमीद हो सकी वहाँ नहीं मिलता

कहाँ चिराग़ जलायें कहाँ गुलाब रखें
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता

ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं
ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलता

चिराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है
खुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता

जिसे भी देखिये वो अपने आप में गुम है
ज़ुबाँ मिली है मगर हमज़ुबा नहीं मिलता

तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो
जहाँ उम्मीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता ।
6)बदला न अपने आपको जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से अजनबी रहे
अपनी तरह सभी को किसी की तलाश थी
हम जिसके भी क़रीब रहे दूर ही रहे
दुनिया न जीत पाओ तो हारो न खुद को तुम
थोड़ी बहुत तो जे़हन में नाराज़गी रहे
गुज़रो जो बाग़ से तो दुआ माँगते चलो
जिसमें खिले हैं फूल वो डाली हरी रहे
हर वक़्त हर मकाम पे हँसना मुहाल है
रोने के वास्ते भी कोई बेकली रहे।

-निदा फ़ाज़ली 

अनुगूँज की यादें कविता/आभा दवे

अनूगूँज की यादें/आभा दवे 
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मेरी ही आवाज अनुगूँज बन
पहाड़ों से टकरा रही थी
मुझको ही  लुभा रही थी
नदी की कल -कल में वो
धीरे-धीर  से समा रही थी।

धरा के सौंदर्य में मेरे गीतों के स्वर
बार -बार आवाज दे हो रहे थे प्रखर
प्रकृति की नीरवता में खो रहे थे
मानों कुदरत ने उन्हें लिया था धर।

आकाश में इंद्रधनुष छाने लगा था
सतरंगी आभा से लुभाने लगा था
प्यारी सी अनुगूँज ने मन को हर्षाया
मन खुद को ही खुद में पाने लगा था।

आभा दवे
10-10-2020
शनिवार 


 

Friday 9 October 2020

गांधी जी के बंदर कविता /आभा दवे

गांधी जी के बन्दर
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गांधीजी के तीन बंदर आँखें कैसे मटकाएँ
एक दूजे को इशारे से देखो वो समझाएँ
पहला बंदर आँख बंद करके कहे ये बात
बुरी चीजों को देखकर करो नजरअंदाज।

दूजा बंदर कानों में हाथ रखकर कहे अपनी
बात
बुरी बातों पर मत दो ध्यान, करो हरदम अच्छा काम
तीसरा बंदर मुंह पर हाथ रखकर कहे करो इन बातों का मोल
कभी ना बोलो कड़वे बोल, वाणी में अमृत रस घोल।

आभा दवे
2-10-2020
शुक्रवार



कवि वृंद के दोहे

 कवि वृंद परिचय एवं उनके सुप्रसिद्ध दोहे

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हिन्दी साहित्य के रीतिकालीन  कवियों में वृन्द जी का महत्वपूर्ण स्थान है। वृन्द जी ने अपनी काव्य रचनाओं के माध्यम से लोगों के दिल में अपनी एक अलग छाप छोड़ी है। आज भी उनकी दोहे उतने ही सार्थक जितने पहले हुआ करती थे ।आइए जानते हैं कवि वृंद और दोहे के बारे में ।


वृंद का जी का जन्म 1643 ईसवी में राजस्थान के जोधपुर जिले के मेड़ता नामक गांव में हुआ था। इनका पूरा नाम वृन्दावनदास था। वृन्द जी की माता का नाम कौशल्या था और पत्नी का नाम नवंरगदे था।

महज 10 साल की उम्र में वृन्द जी काशी आए थे और यहीं पर इन्होंने तारा जी नाम के एक पंडित से साहित्य, दर्शन की शिक्षा प्राप्त की थी। इसके साथ ही वृन्द जी को व्याकरण, साहित्य, वेदांत, गणित आदि का ज्ञान प्राप्त किया और काव्य रचना सीखी।

वृन्द जी ने अपनी रचनाएं सरल, सुगम, मधुर और आसान भाषा में लिखी हैं। वृन्द जी कविता करने का शौक, अपने पिता से आया। इनके पिता भी कविता लिखा करते थे। हिन्दी साहित्य के महान कवि वृन्द जी मुगल सम्राट औरंगजेब के दरबारी कवि भी थे।

वृन्द जी के नीति विषयक दोहे बहुत सुंदर हैं और काफी मशहूर भी हैं। वृन्द जी की रचनाएं भी काफी प्रसिद्ध हैं। इनकी प्रमुख रचनाओं में ‘वृंद-सतसई, ‘पवन-पचीसी, ‘श्रंगार-शिक्षा, अलंकार सतसई, भाव पंचाशिका, रुपक वचनिका, सत्य स्वरूप  और ‘हितोपदेश मुख्य हैं।

‘वृंद-सतसई कवि वृन्द जी की सबसे प्रसद्धि रचनाओं में से एक है जो नीति साहित्य का श्रंगार है। जिसमें 700 दोहे हैं, इसकी भाषा अत्यंत सरल और सुगम है जो कि आसानी से समझी जा सकती है। इन्होंने अपनी रचनाओं में कहावतों और मुहावरों का भी सुंदर ढंग से इस्तेमाल किया है।


कवि वृंद के कुछ दोहे

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1)रागी अवगुन न गिनै, यहै जगत की चाल ।

देखो, सबही श्याम को, कहत ग्वालन ग्वाल ॥ 


2)अपनी पहुँच विचारिकै, करतब करिये दौर ।

 तेते पाँव पसारिये, जेती लाँबी सौर ॥ 


3)कैसे निबहै निबल जन, करि सबलन सों गैर ।

जैसे बस सागर विषै, करत मगर सों बैर॥ 


4)विद्या धन उद्यम बिना, कहो जू पावै कौन ।

   बिना डुलाये ना मिलै, ज्यौं पंखा की पौन ॥ 


5)बनती देख बनाइये, परन न दीजै खोट ।

   जैसी चलै बयार तब, तैसी दीजै ओट ॥ 


6)मधुर वचन ते जात मिट, उत्तम जन अभिमान ।

    तनिक सीत जल सों मिटै, जैसे दूध उफान ॥ 


7)सबै सहायक सबल के, कोउ न निबल सहाय ।

     पवन जगावत आग को, दीपहिं देत बुझाय ॥ 


8)अति हठ मत कर हठ बढ़े, बात न करिहै कोय ।

     ज्यौं –ज्यौं भीजै कामरी, त्यौं-त्यौं भारी होय ॥ 


9)लालच हू ऐसी भली, जासों पूरे आस ।

   चाटेहूँ कहुँ ओस के, मिटत काहु की प्यास ॥ 


10)गुन-सनेह-जुत होत है, ताही की छबि होत ।

     गुन-सनेह के दीप की, जैसे जोति उदोत ॥


11)ऊँचे पद को पाय लघु, होत तुरत ही पात ।

    घन तें गिरि पर गिरत जल, गिरिहूँ ते ढरि जात ॥


12)आए आदर न करै, पीछे लेत मनाय ।

घर आए पूजै न अहि, बाँबी पूजन जाय ॥


13)उत्तम विद्या लीजिए, जदपि नीच पै होय ।

पर्यौ अपावन ठौर को, कंचन तजत न कोय ॥


14)दुष्ट न छाड़ै दुष्टता, बड़ी ठौरहूँ पाय ।

जैसे तजै न स्यामता, विष शिव कण्ठ बसाय ॥


15)बड़े-बड़े को बिपति तैं, निहचै लेत उबारि ।

ज्यों हाथी को कीच सों, हाथी लेत निकारि ॥


16)दुष्ट रहै जा ठौर पर, ताको करै बिगार ।

आगि जहाँ ही राखिये, जारि करैं तिहिं छार ॥


17)ओछे नर के चित्त में, प्रेम न पूर्यो जाय ।

जैसे सागर को सलिल, गागर में न समाय ॥


18)जाकौ बुधि-बल होत है, ताहि न रिपु को त्रास ।

घन –बूँदें कह करि सके, सिर पर छतना जास ॥


19)सरसुति के भंडार की, बड़ी अपूरब बात ।

जौं खरचे त्यों-त्यों बढ़ै, बिन खरचै घट जात ॥


20)कारज धीरे होत है, काहे होत अधीर ।

समय पाय तरुवर फरै, केतिक सींचौ नीर ॥


21)उद्यम कबहूँ न छाड़िये, पर आसा के मोद ।

गागर कैसे फोरिये, उनयो देकै पयोद ॥


22)क्यों कीजे ऐसो जतन, जाते काज न होय ।

परबत पर खोदै कुआँ, कैसे निकरै तोय ॥ 


23)हितहू भलो न नीच को, नाहिंन भलो अहेत ।

चाट अपावन तन करै, काट स्वान दुख देत ॥ 


24)चतुर सभा में कूर नर, सोभा पावत नाहिं ।

जैसे बक सोहत नहीं, हंस मंडली माहिं ॥ 


25)हीन अकेलो ही भलो, मिले भले नहिं दोय ।

जैसे पावक पवन मिलि, बिफरै हाथ न होय ॥ 


26)फल बिचार कारज करौ, करहु न व्यर्थ अमेल ।

तिल ज्यौं बारू पेरिये, नाहीं निकसै तेल ॥ 


27)ताको अरि का करि सकै, जाकौ जतन उपाय ।

  जरै न ताती रेत सों, जाके पनहीं पाय ॥ 


28)हिये दुष्ट के बदन तैं, मधुर न निकसै बात ।

     जैसे करुई बेल के, को मीठे फल खात ॥ 


29)ताही को करिये जतन, रहिये जिहि आधार ।

को काटै ता डार को, बैठै जाही डार ॥ 


30)अति परिचै ते होत है, अरुचि अनादर भाय।

मलयागिरि की भीलनी, चंदन देत जराय॥


31)करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।

रसरी आवत जात तें, सिल पर परत निसान।।


-कवि वृंद

Wednesday 7 October 2020

कविता-सूरज-चंदा /आभा दवे

सूरज -चंदा/आभा दवे 
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पूरब ,पश्चिम, उत्तर ,दक्षिण
आओ तुमको बतलाएँ
सूरज चंदा कहाँ से आए
कहाँ जाकर छुप जाएँ ।

रोज सवेरे सूरज आता
पूर्व से निकल भर देता
अपना चारों ओर उजाला
रोशन कर देता जग सारा ।

दिन भर चलता रहता वो
थककर खो जाता पश्चिम में
बाँए हाथ पर उत्तर दिशा
दाहिने हाथ पर दक्षिण दिशा 
मुस्कराती , इठलाती ।

पूरब ,पश्चिम, उत्तर ,दक्षिण 
दिशाओं में जीवन चलता जाता है 
और हम सबको नया संगीत सुनाता है
चाँद -सितारों के बीच खड़ा मुस्काता है।

सूरज के जाने के बाद चंदा बादल
से निकलकर हम सब को लुभाता है
बच्चों का मामा बन उनको खूब हँसाता है
तारों की बारात लिए सागर से बतियाता है।
आभा दवे  


 

चीरहरण -कविता/आभा दवे

चीरहरण 
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न जाने कब यह सिलसिला 
थमेगा चीरहरण के दौर का 
निर्दोष बालाएँ कब तक मसली 
जाएँगी और इस तरह से दुनिया
से विदा होती ही चली जाएँगी।

प्रश्नचिन्ह लगा रही अब तो
हर नारी की अस्मिता भी
क्यों खामोश समाज देख रहा 
दुर्गति यह सारी नारी की ।

करते हैं नारी की पूजा नारी को ही 
लूट रहे
अपराधी अपराध कर निर्भीक ही घूम रहे
कानून को अब बनानी होगी कठोर धाराएँ
अपराधी अपराध कर निर्दोष न बच पाएँ।

नारी को भी अब मोर्चा संभालना होगा
अपने अधिकारों के लिए लड़ जाना होगा
निर्दोष बालाएँ न हरी जाएँ इस तरह
माँ को ही अब काली बन जाना होगा
घर-घर में संस्कारों का दीप जलाना होगा
समाज में फैले राक्षसों को मिटाना  होगा।

*आभा दवे*
30-9-2020

  


कविता/अनाड़ी-खिलाड़ी/आभा दवे











अनाड़ी -खिलाड़ी
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दौर ऐसा चल रहा 
हर किसी को छल रहा
'मैं'की कीमत बढ़ रही 
'हमसे' नाता कट रहा
चालाकी का खेल खेलते 
लोग हर जगह आज कल
अनाड़ी भी हो रहे खिलाड़ी
अब तो देखो तरह -तरह से
मासूमियत की शक्ल में
खुद को ही इंसा छल रहा।

आभा दवे
3-10-2020

शनिवार 

कविता-जीवन-मृत्यु /आभा दवे

 जीवन- मृत्यु

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लेते हैं सब जन्म इस धरा पर

अलग-अलग रूप रंग लिए

सुख-दुख के गगन तले ही
जीवन अपना गुजारते हैं।

जन्म के साथ ही जुड़ जाता है 
एक नाता मौत से भी 
जो अदृश्य रहकर हम सभी के 
संग चलती रहती है और छलती
रहती है।

जीवन - मृत्यु का  ये खेल
जब से दुनिया बनी चला आ रहा
हम सब को जगा रहा ,सुला रहा
कई-कई जन्मों तक भटका रहा ।

*आभा दवे*
1-8-2020 मंगलवार

कविता-कोरोना का रोना /आभा दवे

कोरोना का रोना....
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कोरोनावायरस की फैली कैसी बीमारी
कोई न सेवा कर सके, है सब की लाचारी
सभी की जिंदगानी बेमानी सी हो रही
समूचे विश्व की ही नींव हिल गई सारी ।

खोया -खोया सा इंसान अब रहने लगा
जागते -सोते भी भावनाओं में बहने लगा
न जाने कब बिछड़ जाए वह अपनों से
जीवन भी हौले -हौले से सब कहने लगा।

भूख ,लाचारी,बेईमानी , हिंसा आदि तो
सदियों से धरती पर चली ही आ रही है
उस पर तरह-तरह की बीमारियाँ भी 
जग में अपना नया तांडव मचा रही है।

न जाने कब खत्म होगा ये खौफनाक दौर
पाएँगे सब अपना-अपना एक निश्चिंत ठौर
इंसानियत भी एक दूसरे को मुंह चिढ़ा रही है
समय की घड़ी भी कुछ न बता पा रही है।

जग में सभी सुखी हों यही कामना हमारी
फूले -फले सदा यह दुनिया हमारी, तुम्हारी
कोरोना का रोना जल्द खत्म हो जगत से

फिर से गुलजार हो यह धरती सबकी प्यारी।

आभा दवे
मुंबई
26-9-2020