Monday 29 July 2019

हाइकु शिव जी पर/आभा दवे

हाइकु -शिव जी पर
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1)सोम का वार
 है शिवजी  के नाम
 ऊँ ही आधार ।

2)विष पान से
  बने वो नीलकंठ
  शिव महान ।

3)स्वयं प्रकट
  निर्जन वन स्थान
  लिंग में मिलें ।

4)गंगा उतारी
 जटाधारी शंकर
 धरती तारी ।

5)नेत्र मूंद के
 ध्यान करें जो वह
 जगदीश्वर ।

6)मन के भोले
 हो जाते जल्दी खुश
  वर दे देते।

7)शिवशंकर
    बेलपत्री , धतूरा 
    करें पसंद ।

 8)राम के प्रिय
    महादेव अनंत
     सदा प्रसन्न ।

9)शिव शक्ति का
   रुप अनोखा होता
   संग सदा ही ।

10)महादेव जी
 आदि, मध्य औ अंत
 त्रिमूर्ति संग ।

आभा दवे

Saturday 27 July 2019

त्रिवेणी काव्य विधा

त्रिवेणी काव्य विधा
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त्रिवेणी एक तीन पंक्तियों वाली कविता है। ऐसा माना जाता है कि प्रसिद्ध गीतकार और कवि गुलज़ार साहब ने इस विधा को विकसित किया था।

  • 'त्रिवेणी' की रचना का मूल प्रेरणा स्रोत भी जापानी काव्य ही कहा जाता है। वैसे गुलज़ार साहब ने इसके संबंध में अपनी त्रिवेणी संग्रह रचना 'त्रिवेणी' के प्रकाशन के अवसर पर इसकी परिभाषा इस प्रकार दी थी-
"शुरू-शुरू में तो जब यह फॉर्म बनाई थी, तो पता नहीं था यह किस संगम तक पहुँचेगी। 'त्रिवेणी' नाम इसीलिए दिया था कि पहले दो मिसरे, गंगा-जमुना की तरह मिलते हैं और एक ख़्याल, एक शेर को मुकम्मल करते हैं। लेकिन इन दो धाराओं के नीचे एक और नदी है - सरस्वती, जो गुप्त है नज़र नहीं आती। 'त्रिवेणी' का काम सरस्वती दिखाना है। तीसरा मिसरा कहीं पहले दो मिसरों में गुप्त है, छुपा हुआ है। 1972-1973 में जब कमलेश्वर जी सारिका के एडीटर थे, तब त्रिवेणियाँ सारिका में छपती रहीं और अब 'त्रिवेणी' को बालिग़ होते-होते सत्ताईस-अट्ठाईस साल लग गए।
त्रिवेणी काव्य विधा की रचना है तथा यह काव्य हिंदी जगत के विख्यात काव्य रचयिता श्यामदेव पराशर  द्वारा रचित हैं.  इस काव्य  रचना  के लिए श्यामदेव पाराशर  को  १९९७ में  संस्कृत भाषा में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित  किया गया था।.  इस विधा  विकसित करने में गुलजार साहब का बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा. 
त्रिवेणी का फ़र्क़ इसके मिज़ाज का फर्क है। तीसरा मिसरा पहले दो मिसरों के आशय को कभी निखार देता है, तो कभी उसमें इजा़फा करता है या उन पर ‘कमेंट’ करता है। 

*गुलज़ार जी की त्रिवेणियाँ *
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१)उड़ के जाते हुए पंछी ने बस इतना ही देखा
देर तक हाथ हिलती रही वह शाख़ फ़िज़ा में 

अलविदा कहने को ? या पास बुलाने के लिए ?
२)क्या पता कब कहाँ मारेगी ?
बस कि मैं ज़िंदगी से डरता हूँ
मौत का क्या है, एक बार मारेगी
३)चौदहवें चाँद को फिर आग लगी है देखो 
फिर बहुत देर तलक आज उजाला होगा 
राख हो जाएगा जब फिर से अमावस होगी
४)रात के पेड़ पे कल ही तो उसे देखा था -
चाँद बस गिरने ही वाला था फ़लक से पक कर 
सूरज आया था, ज़रा उसकी तलाशी लेना

५)जुल्फ में यूँ चमक रही है बूँद
जैसे बेरी में तनहा इक जुगनू

क्या बुरा है जो छत टपकती है

६)आओ जुबाने बाँट लें अब अपनी अपनी हम
न तुम सुनोगे बात, ना हमको समझना है

दो अनपढ़ों को कितनी मोहब्बत है अदब से

७)ऐसे बिखरे हैं रात दिन, जैसे 
मोतियों वाला हार टूट गया 

तुमने मुझे पिरो के रखा था 


१५) लोग मेलों में भी गुम होकर मिले हैं बारहा
     दास्तानों  के किसी दिलचस्प से एक मोड़ पर
    यूँ  हमेशा के लिए भी क्या बिछड़ता है कोई?
गुलजार
प्रस्तुति - आभा दवे 

Friday 26 July 2019

कविता -दहलीज़ / आभा दवे

  दहलीज  /  आभा दवे 
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देश के लिए बढ़ाएँगे कदम
रुक न सकेंगे चल चार कदम
देश की खातिर पार करी है घर की *दहलीज*
सीना तान बड़े चले हैं हम सब वीर
देश हमारा चैन की साँस लेता रहे
मुस्कुराते रहे हर देशवासी
कर ली है प्रतिज्ञा देश की खातिर
जान लुटाने की
मातृभूमि पर शीश नवाया
तिरंगे झंडे की खातिर
हर देशवासियों को हम सैनिकों पर अभिमान रहे
चला जा रहा देखो वीर
देश की खातिर शान से
*दहलीज* भी ना रोक सकी
बढ़ा चला स्वाभिमान से ।

*आभा दवे*

Wednesday 24 July 2019

कविता -मसरूफ, लीन ,रत

मसरुफ़/ लीन/ रत  
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आभा दवे 

सावन की रिमझिम फुहारे पड़ी हैं
बरखा ने देखो धरती रंगी है
हरियाली छाई है चहुँओर
फुलवारी  भी फूलों से ढँकी है  ।

मौसम भी देखो *मसरूफ* कितना
झरनों की अद्भुत झड़ी सी लगी है
नदियाँ कल -कल गीत गा रहीं है
सागर से मिलने वो जा रही है ।

आसमान में बिजली डोल रही है
बादलों से ना जाने क्या बोल रही है
अपने में *लीन* वो *मशगूल* हो
पर्वतों से जाकर टकरा रही है ।

लुभा रहा सभी को ये खूबसूरत नज़ारा
तस्वीरों में उतर आई सभी की छवि है
भीगी हुई रात , पवन ये सुहानी
अपने में *रत* सभी की जिंदगानी ।

*आभा दवे*


Tuesday 23 July 2019

कविता -अंतर /आभा दवे

अंतर
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एक बेटी और बहू में 
वैसे तो कोई फर्क नहीं
पर अनजाने ही अक्सर
हो जाता है ये *अंतर*
जो बेटी के  लिए सही है
वही बहू के लिए गलत
हो जाता है अक्सर ही
यही बात बेटे और दामाद
पर भी लागू हो जाती है
दामाद बेटी के साथ घर
का काम करे तो खुशी 
मिलती है माता-पिता को
पर यदि एक बेटा अपनी
पत्नी का घर में हाथ बँटा दे
तो सुनना पड़ता है बहू को
इस *अंतर* को मिटाना होगा
बहु को भी बेटी बनाना होगा
आत्म सम्मान बना रहे उसका
कर सके सभी को ह्रदय से आत्मसात
सभी के मन में जगाए विश्वास
हर घर का कोना-कोना चहकता रहे
बहू और बेटी दोनों से महकता रहे ।



*आभा दवे*

कविता -कामयाबी

कामयाबी / आभा दवे 
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 गिर कर उठना आसान नहीं होता
मन के बोझ के पहाड़ पर चलना
बिन लाठी के काँटों भरे रास्तों पर
बहुत मुश्किलें पैदा कर देता है पर
काँटो के बीच फूलों की तरह खिलकर
*कामयाबी* का झंडा गाड़ देना सारी
कठिनाइयों को जीत में बदल कर
मुस्कान बिखेरते रहना जीवन का
सबसे बड़ा उपहार होता है जो
बस यही सिखाता है बार-बार हर बार
मेहनत का फल *कामयाबी* ही होता है।



आभा दवे

Friday 19 July 2019

धनुषाकार वर्ण पिरामिड विधा

धनुषाकार वर्ण पिरामिड 
 धनुषाकार वर्ण पिरामिड हिंदी साहित्य में एक नया छंद विधान है ।
  धनुषाकार वर्ण पिरामिड में चौदह चरण है । इसके प्रथम चरण में एक वर्ण ,दूसरे में दो वर्ण ,तीसरे में तीन…….क्रमशः सातवे में सात वर्ण होते है ।  आठवें चरण में पुनः सात वर्ण , नौ वे चरण में छः दसवें चरण में पाँच  , ग्यारहवे चरण में चार वर्ण , बारहवें में तीन , तेरह चरण में दो वर्ण , और चौदह में एक वर्ण होता है ।  मतलब वर्ण पिरामिड की उल्टी गिनती शुरू हो जाती है और एक वर्ण पर आ कर खत्म हो जाती है । तो धनुषाकार वर्ण पिरामिड बन जाता है ।चूँकि ये देखने में धनुष के आकार के दिखाई देते है इस लिए इसे धनुषाकार वर्ण पिरामिड कहा जाता है । आधे वर्ण नही गिने जाते है । किन्ही दो पदों में तुकांत आने पर रचना सुंदर बन जाती हैं । 
इस विधा में कम शब्दों में ही पूरा भाव समाहित होता है।अर्थात ‘गागर में सागर’
जैसे–

 हे -1
 माता -2
शारदा -3
ज्ञान- देवी-4
तिमिर मिटा -5
अज्ञानता हटा -6
नवप्रकाश भर-7
हे माँ हँसवाहिनी-7
तू ज्ञानदायिनी-6
मधुर रस-5
जीवन में-4
घोल दे-3
वर -2
दे -1

आभा दवे ©




कविता -यादों का संचय

यादों का संचय / आभा दवे
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बचपन की यादों को
दिल की पोटली में
सहेज कर सदा के लिए
*संचय* कर लिया है
माता पिता के संग 
बिताए पल
खजाने की तरह
सुरक्षित है , संचित है
जिसका कभी क्षय नहीं होता
हमेशा उसकी महक फूलों
सी महकती रहती है
मन को आनंदित करती है 
जीवन में उमंग भरती है ।

आभा दवे



Sunday 14 July 2019

कबीर दास जी के दोहे - जो आज भी सभी पर अपना असर छोड़ जाते है । प्रस्तुत है मेरी पसंद के कुछ कबीर दास जी के दोहे -आभा दवे

कबीरदास जी के दोहे*
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गुरु गोविंद दोउ खड़े काको लागूं पाय ।

बलिहारी गुरु आपने, गोविंन्द दियो बताय ।।


जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,

मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।


कस्तूरी कुंडल बसे,मृग ढूँढत बन माही।

ज्योज्यो घट– घट राम है,दुनिया देखें नाही ।।



जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहीं ।

प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहीं ।


अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,

अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।


 पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।

 

हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,

आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।



 दुःख में सुमिरन सब करे ,सुख में करे न कोय ।

जो सुख में सुमिरन करे तो दुःख काहे को होय।

 
 धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,

माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।

 

तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,

कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तोओ पीर घनेरी होय।


 साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,

सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय ।


बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,

जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।

 
 कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई।

बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई।


 कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन।

कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन ।

 
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,

कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।


 जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,

मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।


 दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,

अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।


कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,

ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।

 
निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय,

बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।


दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,

तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।


 कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई।

बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई।

करता रहा सो क्यों रहा,अब करी क्यों पछताय ।

बोया पेड़ बबुल का, अमुआ कहा से पाये ।

 
कस्तूरी कुंडल बसे,मृग ढूँढत बन माही।

ज्योज्यो घट– घट राम है,दुनिया देखें नाही ।।


लघुकथा-अस्तित्व /आभा दवे

अस्तित्व /आभा दवे 
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रीना को अस्पताल से एक फोन आया कि तुम्हारी 19 वर्षीय बेटी ने आत्महत्या करने की कोशिश की है ।रीना घबराई सी अस्पताल पहुँची ,उसने देखा उसकी बेटी बेहोशी की हालत में अस्पताल में पड़ी हुई है और उसके हाथ में पट्टी बंधी हुई है । रीना की बेटी की सहेली भी अस्पताल में उसी कमरे में बैठी हुई थी उसने रीना को बताया कि कॉलेज में कुछ लड़कों ने उनकी बेटी मधु  को छेड़ा था और इसी से दुखी होकर उसने यह कोशिश की थी । रीना इस बात से खुश थी कि उसकी बेटी बच गई है।

थोड़ी ही देर में रीना की बेटी मधु को होश आ गया उसने प्यार से अपनी बेटी के सिर पर हाथ फेरा और उसे समझाना शुरू किया "जीवन में इतनी जल्दी हार नहीं मानते अपने *अस्तित्व* की लड़ाई हमेशा लड़ना पड़ती है। यह जीवन बहुत कीमती है इसका सम्मान करो ।" मन की कमजोरी इंसान को अंदर तक हिला देती है इसलिए तुम ने ऐसा कदम उठाया है। जीवन में इस तरह की गलती दोबारा ना हो इसका हमेशा ध्यान रखना।
माँ की स्नेह भरी बात सुनकर मधु की आँखों में आँसू आ गए, उसे अपनी गलती का एहसास हो गया। उसने माँ के गले लगते हुए कहा "माँ मैं अपने *अस्तित्व* की लड़ाई लड़ सकती हूँ आप जो मेरे साथ हो ।" कमरे में विश्वास की एक रोशनी सी फैल गई।


आभा दवे
8-5-2019 बुधवार



Saturday 13 July 2019

कविता -बुलबुला

बुलबुला / आभा दवे
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मन के  निर्मल आंगन में

उठते हैं नित्य कई रंगीन बुलबुले

जो भर देना चाहते हैं

जीवन में सतरंगी रंग

और देखना चाहते हैं 

उसकी उमंग

चेहरों पर इक उन्मुक्त मुस्कान

निश्छल प्रेम हो उसकी पहचान

सारे जहाँ में बिखरी  

हो खुशियाँ अपार

बाँट लें सुख-दुख 

मिल सब संग

भरें सब ही ऊँची उड़ान

झूठ का बुलबुला दम तोड़े

सच की हो विजयी मुस्कान

देश बने अपना महान 

करें सभी इसका गुणगान ।

*आभा दवे*

Tuesday 9 July 2019

लघुकथा -खुशी /आभा दवे

*खुशी*
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दीपेश ने अपने पिताजी से फोन पर तुरंत शहर आने के लिए कहा ।आने का कोई कारण नहीं बताया और फोन रख दिया।

        दीपेश के पिताजी दीपेश की बात टाल नहीं पाए और शहर के लिए निकल गए। दीपेश उनका इकलौता लड़का था । दीपेश की मां को दुनिया से गए दो साल हो गए थे । दीपेश शहर में एक छोटे से मकान में रह रहा था और शहर में ही नौकरी कर रहा था । इसलिए उसके पिताजी अक्सर गांव में अकेले ही रहते थे। ट्रेन में बैठते ही दीपेश के पिताजी के मन में बुरे- बुरे ख्याल आने शुरू हो गए।
ट्रेन का पूरा सफर उनका बुरे ख्यालों में ही बीता । जैसे ही उनका स्टेशन आया तो  ट्रेन के रुकते ही सामने उन्होंने दीपेश को हंसते हुए पाया। दीपेश को हंसता हुआ देखकर उनकी सारी चिंताएं खत्म हो गई थी। दीपेश ने अपने पिताजी को कार में बैठने का इशारा किया ।
कार में बैठते ही दीपेश ने अपने पिताजी से हालचाल पूछने के अलावा  रास्ते में और कोई बात नहीं की । आधे घंटे बाद कार जाकर एक बड़ी सी बिल्डिंग के सामने रुक गई। पिताजी ने बड़े आश्चर्य से दीपेश की ओर देखा। दीपेश ने पिताजी से कहा "चलिए पिता जी आप सही जगह ही आए हैं।"पांचवी मंजिल पर पहुंचते ही घर की चाबी निकाल कर देते हुए उसने पिताजी कहा" पिताजी घर का ताला खोलिए, यह घर आपका ही है आपको गांव में अब अकेले रहने की जरूरत नहीं है।" पिताजी ने जैसे ही घर का ताला खोला अंदर दीपेश के सारे दोस्तों ने ताली बजाकर पिता जी का गर्मजोशी से स्वागत किया । दीपेश के पिताजी के पास कहने को कोई शब्द नहीं थे आज उनका रोम -रोम पुलकित हो रहा था  ।

आभा दवे

कविता -पर्यावरण पर

 पर्यावरण /आभा दवे 
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हरी -भरी वसुंधरा का यह क्या हाल हो रहा
कट रहे पेड़ जहाँ-तहाँ और बन रही 
गगनचुंबी इमारतें वहाँ
हवा भी रुख बदल रही
प्रदूषण में ढल रही
कार ,बसों की ध्वनि सभी को बेचैन कर रही
बीमारियां मुस्कुरा रही और सभी को छल रही
जल की निर्मलता प्रश्न चिन्ह लगा रही
प्रदूषित नदी भी अब आँसू बहा रही
मूक प्राणी तरस रहे पानी को यहाँ -वहाँ
गाँव की बालाएं भी पानी को तरस रही
बंजर धरती बादलों का मुंह तक रही
मौसम भी बेगाना नजर आने लगा
कहीं तूफान तो कहीं बाढ़ लाने लगा
पर्यावरण में एक अजीब सी तब्दीली आई है
जिसने दुनिया में कहर मचाई है
भूकंप भी रह-रहकर आने लगा 
लोगों को  आकर डराने लगा
इस ओर सभी को देना होगा ध्यान
पेड़ लगाकर करना होगा धरती का सम्मान
नदियों को निर्मल कर मीठे जल की करनी होगी रखवाली
ताकि किसी के भी घर का घड़ा न हो खाली
आसपास के वातावरण को स्वच्छ बनाना होगा
उज्जवल भविष्य के लिए हाथ बढ़ाना होगा
हवा ,पानी , धरती , जब सभी रहेंगे स्वच्छ
जनजीवन तब नहीं होगा अस्वस्थ
आओ हाथ बढ़ाएँ पर्यावरण को और बेहतर बनाएँ ।


आभा दवे

4-6-2019 सोमवार 







शब्द और क़लम पर कविता

शब्द और कलम /आभा दवे 
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शब्द और कलम दोनों में
एक जंग सी चल रही थी
शब्द अपने पर इतरा रहा था
कलम को चिढ़ा रहा था
देखो मैं कितना बलवान हूँ
मुझे बोलने और लिखने के पहले
सभी मुझसे डरते हैं
ना जाने ऐसा क्या कर जाऊँ
लोगों की नजरों में उठ जाऊँ या गिर जाऊँ
बहुत महिमा है शब्दों की
इसीलिए मैं इतना इतराऊँ
कलम ने हँसकर शब्द की ओर देखा
और बड़े ही प्यार से उससे कहने लगा 
मेरी ही लेखनी से तो निकलते हो तुम
और जब किसी की जुबां से निकलते हो
 तब भी तो तुम मेरी लेखनी में ढलते हो
कलम और शब्दों का मेल बहुत पुराना है
फिर क्यों आखिर हम दोनों को टकराना है
तुम और हम दोनों मिल कर दिलों पर दस्तक
देते हैं 
दुनिया की काया मिनटों में बदल देते हैं
शब्द ने कलम को गले से लगाया , सहलाया
और कागज़ की धरा पर लहराने लगे मग्न हो ।

आभा दवे 



4-7-2019 गुरुवार

मिर्ज़ा ग़ालिब की सुप्रसिद्ध ग़ज़ले एवं शेर

मिर्ज़ा ग़ालिब की सुप्रसिद्ध  ग़ज़ले एवं शेर


हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पर दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले ।


रौनक...उनको देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक,
वो समझते हैं के बीमार का हाल अच्छा है

इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब',
कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे

सहर...

तेरे वादे पर जिये हम, तो यह जान, झूठ जाना,
कि ख़ुशी से मर न जाते, अगर एतबार होता

तुम न आए तो क्या सहर न हुई
हाँ मगर चैन से बसर न हुई
मेरा नाला सुना ज़माने ने
एक तुम हो जिसे ख़बर न हुई

ख़ुदा...

न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता,
डुबोया मुझको होने ने न मैं होता तो क्या होता !

हुआ जब गम से यूँ बेहिश तो गम क्या सर के कटने का,
ना होता गर जुदा तन से तो जहानु पर धरा होता!

याद...

हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है,
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता !

गुफ़्तगू...

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है

न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा
कोई बताओ कि वो शोखे-तुंदख़ू क्या है

रश्क...

ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न हमसे
वरना ख़ौफ़-ए-बदामोज़ी-ए-अदू क्या है

चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी ज़ेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है

जुस्तजू...

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है

अज़ीज़...

वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़
सिवाए बादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या है

पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो चार
ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है

उम्मीद...

रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
तो किस उम्मीद पे कहिये के आरज़ू क्या है

बना है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता
वगर्ना शहर में "ग़ालिब" की आबरू क्या है

दीवार...

ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
कभी सबा को, कभी नामाबर को देखते हैं

वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं!
कभी हम उमको, कभी अपने घर को देखते हैं

ज़ख़्मे जिगर...

नज़र लगे न कहीं उसके दस्त-ओ-बाज़ू को
ये लोग क्यूँ मेरे ज़ख़्मे जिगर को देखते हैं

तेरे ज़वाहिरे तर्फ़े कुल को क्या देखें
हम औजे तअले लाल-ओ-गुहर को देखते हैं ।

कविता -योगा पर

योगा / आभा दवे 
----- 
मिलकर करें योगा और भगाए रोग
जीवन में न आने दें कोई रोग
सूर्य- चँद्र का है ये योग 
करें योगा रोज ।

सूर्य को कर प्रणाम
करे सूर्य नमस्कार योग
जो जीवन में उत्साह जगाए
मन में नई उमंगे लाए
आलस को भी दूर भगाए
जीवन में संयम लाए ।

युगो -युगो से बह रही है
योग की धारा
जिसने इस में गोता लगाया
उसने अपने जीवन को महकाया
उज्जवल भविष्य पाया ।

प्राणायाम की महिमा को भी
संतों ने गाया
निरोगी काया में ही
ईश्वर को पाया
त्राटक करके नेत्र ज्योति 
को बढ़ाया ।

ओम का गुंजन मन में आनंद लाए
संगीत जगाए
ईश्वर का अहसास कराए
मन को निर्मल बनाए
शांति की गंगा बहाए 
महक रही योगा की खुशबू
अब तो चँहुओर ।

आभा दवे



कविता -यादों का कारवाँ



यादों का कारवाँ / आभा  दवे 
--------------

वक्त के साए में बचपन की यादों का काँरवा

अब भी चलता है हरदम मेरे साथ

मासूम सा बचपन दिल में कहीं बैठा हुआ है

मेरी उँगलियों को थामे हुए

जो अक्सर नन्हे कदमों की चाप

कानों को सुना जाता है

माँ का आँचल और पिता का प्यार ।

उस में नजर आता है

भाई -बहनों के संग लुका -छिपी का खेल

नजरों से नहीं जाता है 

वो पल बहुत याद आता है

जो अब भी मन में करवट ले रहा है

कागज की कश्ती और बरगद की डाल का वो झूला

अब कहाँ  नजर आता है ?

अब तो बस जीवन सिमटा सा नजर आता है

जीवन की शाम दस्तक दे रही है

नए  तोहफे जीवन को दे रही है

पर रुकता नहीं यादों का कारवाँ

बचपन की मीठी सी यादें

अब भी  मुझे लोरी दे रही है 

चंदा मामा की  वो कहानी 

यादों में अब भी सोई पड़ी है ।

आभा दवे 






कविता -बेहाल

बेहाल /आभा दवे 
——-
बेहाल है आलम जिंदगी का
बारिश भी अब कहर  ढाने लगी है
लोगों को अब डराने लगी है
पानी में डूबे रास्ते दिखाई देते नहीं
गड्ढों में जिंदगी जाने लगी है
गर्मी से तो राहत मिल गई पर
मुंबई की बारिश हलचल मचाने लगी है
रेल की पटरियां डूब रही पानी में
रेले भी अब मुंह चिढ़ाने लगी है
मुंबई की जनता जुटा रही साहस
लोगों की मदद को आगे आने लगी है
जिंदगी बेहाल हो रही तो क्या
बारिश सब पर अपना रंग जमाने लगी है ।



आभा दवे 

मेरे पसंद के कबीर जी के दोहे


 कबीरदास जी के दोहे आज भी अपना असर छोड़ जाते है । जितनी बार भी पढ़ो उतनी बार ही मन पर गहरा असर छोड़ते है ।कबीर दास जी की लेखनी को नमन करते हुए उनके कुछ दोहे -

कबीरदास जी के दोहे   
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गुरु गोविंद दोउ खड़े काको लागूं पाय ।

बलिहारी गुरु आपने, गोविंन्द दियो बताय ।।



जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,

मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।


कस्तूरी कुंडल बसे,मृग ढूँढत बन माही।

ज्योज्यो घट– घट राम है,दुनिया देखें नाही ।।


जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहीं ।

प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहीं ।


अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,

अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।


 पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।

हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,

आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।




 दुःख में सुमिरन सब करे ,सुख में करे न कोय ।

जो सुख में सुमिरन करे तो दुःख काहे को होय।

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,

माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।

तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,

कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तोओ पीर घनेरी होय।


 साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,

सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय ।

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,

जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।

 कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई।

बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई।


 कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन।

कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन ।

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,

कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।


 जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,

मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।


 दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,

अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।

कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,

ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।

निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय,

बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।


दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,

तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।


कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई।

बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई।

करता रहा सो क्यों रहा,अब करी क्यों पछताय ।

बोया पेड़ बबुल का, अमुआ कहा से पाये ।

कस्तूरी कुंडल बसे,मृग ढूँढत बन माही।

ज्योज्यो घट– घट राम है,दुनिया देखें 



जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहीं ।

प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहीं ।


अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,

अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।


 पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।

हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,

आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।




 दुःख में सुमिरन सब करे ,सुख में करे न कोय ।

जो सुख में सुमिरन करे तो दुःख काहे को होय।

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,

माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।

तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,

कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तोओ पीर घनेरी होय।


 साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,

सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय ।

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,

जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।

 कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई।

बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई।


 कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन।

कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन ।

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,

कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।


 जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,

मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।


 दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,

अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।

कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,

ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।

निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय,

बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।


दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,

तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।


कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई।

बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई।

करता रहा सो क्यों रहा,अब करी क्यों पछताय ।

बोया पेड़ बबुल का, अमुआ कहा से पाये ।

कस्तूरी कुंडल बसे,मृग ढूँढत बन माही।

ज्योज्यो घट– घट राम है,दुनिया देखें नाही ।।