Friday 18 October 2019

कहमुकरी /आभा दवे


देखे बादल काले- काले
झूम उठे होकर मतवाले
मन में जागे अब तो हिलोर
क्यों सखि साजन ?नहीं सखि मोर

*आभा दवे*

Tuesday 15 October 2019

लघुकथा -दीवाली की सफ़ाई /आभा दवे

दीवाली की सफाई/आभा दवे 
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रेनू ने दिवाली के करीब आते ही घर की  साफ-सफाई शुरू कर दी थी ।  वह हरेक सामान को अच्छे से साफ कर रख रही थी और बीते दिनों में खोती जा रही थी । दुख और हर्ष दोनों उसके चेहरे पर बारी-बारी से उभर रहे थे । तभी उसकी ब्यूटिशियन बेटी आकर कहने लगी -"माँ तुम भी न हर साल यह सब सामान अलमारी से यूँही निकालती हो और फिर वापस उसी में रख देती हो उसे फेंक क्यों नहीं देती? सब सामान कितना पुराना हो गया है और यह अलमारी भी । उसने प्यार से अपनी माँ के कंधे पर हाथ रख कर कहा-माँ आजकल कितने अच्छे-अच्छे सामान आ गए हैं क्यों ना सब पुराना सामान बेचकर नया ले ले ?"

माँ ने हँसकर बड़े प्यार से उससे कहा- "तुम अभी कुछ नहीं समझोगी । यह सामान लेने के लिए मैंने बहुत मेहनत की है पैसे जुटाए हैं, हर महीने एक-एक सामान खरीदा है । यह सभी सामान मुझे मेरे बीते हुए दिनों की याद दिलाता है । हर सामान में मेरी और तुम्हारे पिताजी की मेहनत की महक आती है। पर माँ "यह संदूक तो फेंक दो ,इस कमरे में अच्छी नहीं लग रही " रेनू की बेटी ने बड़ी मासूमियत से कहा ।

हाँ , मुझे पता है कि तुझे यह सब सामान पसंद नहीं है पर इस संदूक से भी मेरी यादें जुड़ी हुई है । यह  वो संदूक है  जो हम गाँव से शहर लेकर आए थे इसके अलावा हमारे पास और कोई सामान नहीं था । तुम्हारे पिताजी ने मेहनत करके ऊँचाई हासिल की उन्होंने तुम सब बच्चों को एक अच्छी जिंदगी दी कभी कोई कमी का एहसास नहीं होने दिया। रेनू की आँखों से जल धारा बह निकली ।  रेनू की पच्चीस वर्षीय बेटी को अपने माँ -पिता पर अभिमान हो रहा था वह भी माँ के साथ सफाई में जुट गई ।


*आभा दवे*

नवभारत  में प्रकाशित
21-10-2019 सोमवार 



कविता -हमसफ़र /आभा दवे

*हमसफर*
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हमसफर मेरे हमसफर
तू जहाँ चले मैं वहाँ चलूँ
तेरी राह मेरी भी राह  है
मंजिल भी मेरी वहीं कहीं ।

थामा जो तुमने हाथ है मेरा
जी उठी फिर से मेरी जिंदगी
लब  गीत गुनगुनाने लगे अब
जिंदगी के फूल मुस्कुराने लगे ।

जो तेरा सहारा मिलता रहा
गुजर जाएगी मेरी जिंदगी
हमसफर तुम पर नाज है मुझे 
तूने सिखा दी जीना जिंदगी ।

*आभा दवे*

Friday 11 October 2019

विजात छंद /आभा दवे

छंद बहुत सारे प्रकार के होते हैं , उन्हीं में से एक है विजात छंद । जिसके बारे में आप सभी  आज जानकारी प्राप्त करेंगे ।

*विजात छंद *
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छंद – विजात
विधान – इसके प्रत्येक चरण में 14 मात्राएँ होती हैं, अंत में 222 वाचिक भार होता है, 1,8 वीं मात्रा पर लघु अनिवार्य होता है l दो-दो पंक्तियों में तुकांत । जैसे- माला -हाला ,तुम्हारा -सहारा । आधे शब्दों को नहीं गिना जाता है जैसे -प्यारा में प को नहीं गिना जाता है ।हर पंक्ति अर्थ पूर्ण होना चाहिए।
विजात छंद
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मापनी
1222 1222  
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    बड़ी सुंदर धरा प्यारी -14 मात्रा
कहे तुम से बड़ी न्यारी ।-14
जगी है वो सदी से ही -14
कहे गाथा तभी से ही ।-14
*आभा दवे*



मन का कठघरा कविता /आभा दवे

मन का कठघरा*
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मन के कठघरे में न ताला लगाना
उसके संग हंसना और उसे हंसाना
उसके साथ ही जीवन गान गाना है
वहीं पर छुपा पड़ा है अद्भुत खजाना ।

मन से मन के द्वार तले सागर हिलोर मारे
विचारों के भंवर में सदा ही हाथ-पैर मारे
खुशी और गम के बीच होता संगम वहाँ
रहता है वह वहाँ  ईश्वर के  नाम के सहारे ।

मन का कठघरा नई आशाओं से भरा
रखना है उसे  ऐसे ही सदा  हरा -भरा
अंधकार है वहाँ तो नई रोशनी जगाना
अपनी जिंदगी को बनाना सोने सा खरा ।



आभा दवे
12-10-2019 शनिवार




Wednesday 9 October 2019

सुकून /चैन कविता /आभा दवे

सुकून/चैन /आभा दवे 


बीते हुए दिन तो गुजर गए आराम से
अब आगे आने वाले दिन सुकून से गुजर जाए तो अच्छा हो
हर तरफ शोर शराबा है , बेचैनी ,अनिद्रा है
चमन के फूलों को मसल रहे हैं सभी
खिलती कलियाँ कहीं मुरझा रही देखो
लोगों के दिलों को अविश्वास ने आ घेरा है
ना जाने कहाँ  रैन बसेरा है
तन और मन सभी के अंदर से घायल हैं
मन के सागर में तूफ़ानों का लगा  मेला है
सब साथ  में हैं पर हर इंसान अकेला है
मोबाइल के मायाजाल ने भी सबको आ घेरा है
कहाँ सुकून कहाँ चैन का ठेला है
इन्हीं के साए में अब अच्छे से वक्त गुजर जाए तो अच्छा हो ।

*आभा दवे*



Tuesday 8 October 2019

लघुकथा - समर्पण /आभा दवे

समर्पण*
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शीलू की नौकरी को आज पूरे एक साल हो गए थे आज वह बेहद खुश थी । उसने बड़ी कठिनाई से नर्स का कोर्स किया था । एक अस्पताल में वह नर्स का काम कर रही थी । अपनी उम्र के पच्चीस साल उसने अपनी मर्जी से ही बिताए थे । साधारण परिवार में जन्म लेने के बावजूद भी वह अपनी जिद्द के कारण नर्स बनी थी ताकि गाँव से निकलकर शहर में नौकरी कर सके और अपने पैरों पर खड़ी हो सके ।

ऑफिस के बाद जैसे ही शीलू घर आई तो कुछ मेहमान बैठे हुए थे उनमें उसे अपनी माँ भी दिखाई दी । शीलू ने अपनी माँ को आवाज देते हुए कहा-"माँ तुमने बताया नहीं तुम गाँव से आज यहाँ आ रही हो तुम्हें अचानक जबलपुर में क्या काम आ गया?"

शीलू की माँ ने उसे आँखों से  चुप रहने का इशारा करते हुए कहा-  तेरे लिए शादी के रिश्ते की बात चल रही है ,यह तेरे ससुराल वाले  हैं मैंने तुम्हारा रिश्ता गाँव में ही तय कर दिया है । लड़के की अपनी एक छोटी सी किराने की दुकान है । " कितना कह कर शीलू की माँ ने  लड़के की फोटो शीलू के हाथ में पकड़ा दी ।

शीलू का चेहरा तमतमा गया फिर भी उसने अपनी आवाज को संयत कर कहा-"माँ मैं इस शादी के लिए तैयार नहीं हूँ और न ही तुम्हारी तरह अपना जीवन इन लोगों को समर्पित कर सकती हूँ । जब समय आएगा तब मैं अपने कार्यों का *समर्पण*अवश्य करुँगी पर अभी नहीं।" लड़के की माँ ने शीलू की बातें सुनकर बड़े ही प्रेम से उसके सिर पर हाथ रखा और कहा- "घबरा मत  बेटी , मेरा बेटा भी पढ़ा- लिखा है तुम्हें गाँव आने की जरूरत नहीं पड़ेगी न ही *समर्पण* करने की, मेरा बेटा शहर आ जाएगा ।" शीलू की आँखों में खुशी के आँसू छलक आए उसने अपनी होने वाली सास के पैर छू लिए ।

*आभा दवे*

मुमकिन कविता /आभा दवे

मुमकिन /आभा दवे 
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कामयाबी का रास्ता कभी छोटा नहीं होता
चलना पड़ता है काँटो भरी राहों पर जिंदगी भर
लगा देना पड़ती है तन और मन की शक्ति पूरी शिद्दत से
प्रथम सीढ़ी से लेकर अंतिम सीढ़ी तक का सफर आसान नहीं होता
बस चलना और सिर्फ चलना होता है लगातार
सफलता  भी धीरे -धीरे मुस्कुराने लगती है
मंजिल का पता बताने लगती है
आत्मशक्ति का बोध करा कर
हर नामुमकिन को मुमकिन बनाने लगती है 
यही जीवन की सफलता का रहस्य है
जिंदगी गुनगुना कर कह उठती है
सब कुछ मुमकिन है अगर तुम चाहो तो ।



*आभा दवे*