Tuesday 3 December 2019

कविता -जी रही हूँ / संतोष श्रीवास्तव

जी रही हूँ
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दर्द मेरे द्वार पर दस्तक 
निरंतर दे रहे हैं
इसलिए मैं गीत के 
हर छंद को जी रही हूँ

गीत का यह कोष 
सदियों से कभी खाली नहीं था 
यह चमन ऐसा
कि इसको देखने माली नहीं था 
यह मुझे जिंदगी के मोड़ पर 
जब-जब मिला है
मैं इसे देने उमर 
शुभकामना को जी रही हूँ 

दर्द इसने इस तरह बांटे 
कि मैं हारी नहीं हूँ
आँसुओं से एक पल को भी 
यहाँ न्यारी नहीं हूँ 
हारना मेरी नियति थी 
जीतना मेरा कठिन था 
मैं नियति को भूल 
अपनी कोशिशों को जी रही हूँ

बहुत कुछ ऐसा मिला 
जिसको न चाहा था कभी 
और जो चाहा उसे 
मर कर भी न पाया कभी 
छूटने पाने के क्रम से विलग हो 
मैं हर सफर हर राह की 
मंजिलों को जी रही हूँ

संतोष श्रीवास्तव

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