Friday 22 December 2017

करीब कविता

करीब
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सब मुझसे दूर जा रहे हैं
और वो मेरे करीब आ रहे हैं

मन में आकर हलचल मचा रहे हैं
बार बार मुझे बुला रहे हैं

मैं भी बढ़ चली हूं उस ओर
जहां से वो आवाज लगा रहे हैं

दुनिया सारी वहीं सिमट रही
ईश भी वहीं कहीं खो रहा

उनके जादू भरे नगर मुझे लुभा रहे हैं

जहां से शब्द छन छन कर आ रहे हैं

यही है वो "शब्द" जो मेरे करीब आ रहे हैं

मुझ से नजदिकियां बढ़ा रहे हैं

करती रहूं हर दम उनका ही श्रृंगार

ऐसा कह मुझे रिझा रहे हैं

करीब करीब और करीब आ रहे है 

और सब मुझसे दूर जा रहे हैं।



आभा दवे

Sunday 17 December 2017

ठग कविता


            ठग 
        ————

नीली छतरी लिए खड़ा वो

सबको रिझा रिझा कर जो 

मन में बसता जाता है 

न जाने कैसा है वो ?

सुबह सवरे सब से पहले 

याद वही जो आता है 

मंदिर ,मस्जिद ,चर्च ,गुरुद्वारा 

न जाने कहाँ छुप जाता है ?


मन के साथ आँख मिचौली खेले 

कभी पास तो कभी दूर नज़र आता है 

है ये कैसा ठग जो सबके मन को भाता है  ?

ठग जाने पर भी कोई 

इसकी रपट नहीं लिखवाता है


हर बार खुद ही ठग जाने को 


नीली छतरी के पास जाता है ।


आभा दवे ( 17-12-2017) रविवार












क्षणिकाएँ - आभा दवे
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बात
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वह अदृश्य है
फिर भी रोज
उनसे ही 
बात होती है।



मन
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मन ही रच लेता है
 एक संसार
जिसका न कोई
आर पार।



सम्मान
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मिल जाता जो 
इतना सम्मान
तो बुढ़ापा 
ठूंठ न कहलाता।


फूल
------
फूल से खुशबू 

जुदा नहीं होती

कहीं भी चढ़े फूल

उनके बिना विदा नहीं होती ।



आभा दवे

Saturday 16 December 2017

क्षणिकाएँ




बात       
———                                  क्षणिकाएँ 
                                            —————


वह अदृश्य है
फिर भी रोज
उनसे ही 
बात होती है।



मन
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मन ही रच लेता है
 एक संसार
जिसका न कोई
आर पार।



सम्मान
-----------

मिल जाता जो 
इतना सम्मान
तो बुढ़ापा 
ठूंठ न कहलाता।


फूल
------
फूल से खुशबू 

जुदा नहीं होती

कहीं भी चढ़े फूल

उनके बिना विदा नहीं होती ।



आभा दवे     क्षणिकाएँ
          ————-

समर्पण कविता


समर्पण
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लाल चुनरी में आई

सारी खुशियां भर लाई

तन मन दोनों किया समर्पण

तब ही सुहागन कहलाई ।

मां बन जाने पर

खुशी से फूली न समाई

किया अपना सर्वस्व समर्पण

तभी अच्छी मां कहलाई

सारे रिश्ते नाते बखूबी निभाते
अपने अरमानों को पीछे छोड़ आई

फिर भी न इतराई

प्रेम जो उसके पास है इतना

लुटाती चली आई ।


नारी की शक्ति जग जाने

उसका ही समर्पण मांगे

वह सदियों से देती आई

तभी वह देवी कहलाई ।



आभा दवे

Thursday 7 December 2017

आत्मबल / आत्मशक्ति

 आत्मबल
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मन की तरल तरंगों में
जब छा जाता है अंधेरा
तभी कहीं दूर एक पुकार
आकर मन से टकराती है
जो मन के ही किसी कोने से
हरदम आती है

वही हमें बताती है कि बाहर नहीं है
तेरी कठिनाइयों का हल
मन के अंदर ही गोता लगाना होगा
अपने आत्मबल को बढ़ाना होगा
अपने विचारों को ऊर्जावान बनाना होगा
न डरना होगा न डराना होगा
बस शांत मन से खुद को सहलाना होगा
खुद के प्रति सम्मान लाना होगा
ईश्वर से प्रेम बढ़ाना होगा
जिसने दिया है एक सुंदर मन
उस मन को दृढ़ बनाना होगा
परमात्मा की विलक्षण और पवित्र कृति
है मानव
जिसे खुद अपने को पहचानना होगा
अपने जीवन का अपमान न कर
विस्मृत हुई आत्मशक्ति को जगाना होगा
आत्मबल को बढ़ा अपनी पहचान खुद बनाना होगा
आत्मा की आवाज़ सुन
मन के आनन्द के सागर में
डूब जाना होगा ।




आभा दवे  (7- 12-2017 ) गुरूवार