Tuesday 15 October 2019

लघुकथा -दीवाली की सफ़ाई /आभा दवे

दीवाली की सफाई/आभा दवे 
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रेनू ने दिवाली के करीब आते ही घर की  साफ-सफाई शुरू कर दी थी ।  वह हरेक सामान को अच्छे से साफ कर रख रही थी और बीते दिनों में खोती जा रही थी । दुख और हर्ष दोनों उसके चेहरे पर बारी-बारी से उभर रहे थे । तभी उसकी ब्यूटिशियन बेटी आकर कहने लगी -"माँ तुम भी न हर साल यह सब सामान अलमारी से यूँही निकालती हो और फिर वापस उसी में रख देती हो उसे फेंक क्यों नहीं देती? सब सामान कितना पुराना हो गया है और यह अलमारी भी । उसने प्यार से अपनी माँ के कंधे पर हाथ रख कर कहा-माँ आजकल कितने अच्छे-अच्छे सामान आ गए हैं क्यों ना सब पुराना सामान बेचकर नया ले ले ?"

माँ ने हँसकर बड़े प्यार से उससे कहा- "तुम अभी कुछ नहीं समझोगी । यह सामान लेने के लिए मैंने बहुत मेहनत की है पैसे जुटाए हैं, हर महीने एक-एक सामान खरीदा है । यह सभी सामान मुझे मेरे बीते हुए दिनों की याद दिलाता है । हर सामान में मेरी और तुम्हारे पिताजी की मेहनत की महक आती है। पर माँ "यह संदूक तो फेंक दो ,इस कमरे में अच्छी नहीं लग रही " रेनू की बेटी ने बड़ी मासूमियत से कहा ।

हाँ , मुझे पता है कि तुझे यह सब सामान पसंद नहीं है पर इस संदूक से भी मेरी यादें जुड़ी हुई है । यह  वो संदूक है  जो हम गाँव से शहर लेकर आए थे इसके अलावा हमारे पास और कोई सामान नहीं था । तुम्हारे पिताजी ने मेहनत करके ऊँचाई हासिल की उन्होंने तुम सब बच्चों को एक अच्छी जिंदगी दी कभी कोई कमी का एहसास नहीं होने दिया। रेनू की आँखों से जल धारा बह निकली ।  रेनू की पच्चीस वर्षीय बेटी को अपने माँ -पिता पर अभिमान हो रहा था वह भी माँ के साथ सफाई में जुट गई ।


*आभा दवे*

नवभारत  में प्रकाशित
21-10-2019 सोमवार 



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