Thursday 17 February 2022

बसंत ऋतु पर साहित्यकारों की रचनाएं

बसंत का आगमन हो चुका है और चारों तरफ बागों में रंग बिरंगे फूल अपना सौंदर्य बिखेर रहे हैं। बसंत ऋतु को चेतना और सुंदरता की ऋतु माना जाता है । बसंत ऋतु में प्रकृति नया श्रृंगार करती है , सजती संवरती है । चारों ओर रंग- बिरंगे फूल सभी का मन मोह लेते हैं। बसंत ऋतु को "ऋतुराज" भी कहा जाता है। बसंत ऋतु में कवियों की लेखनी स्वत: ही चल पड़ती है और प्रकृति के अनूठे सौंदर्य को कागज़ पर उतार देती है। बसंत ऋतु पर साहित्यकारों ने कई रचनाएँ लिखी और बसंत ऋतु के सौंदर्य का अपनी- अपनी तरह से वर्णन किया है। प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध साहित्यकारों की बसंत ऋतु पर कुछ रचनाएं 🙏 1)वसन्त-श्री / सुमित्रानंदन पंत उस फैली हरियाली में, कौन अकेली खेल रही मा! वह अपनी वय-बाली में? सजा हृदय की थाली में-- क्रीड़ा, कौतूहल, कोमलता, मोद, मधुरिमा, हास, विलास, लीला, विस्मय, अस्फुटता, भय, स्नेह, पुलक, सुख, सरल-हुलास! ऊषा की मृदु-लाली में-- किसका पूजन करती पल पल बाल-चपलता से अपनी? मृदु-कोमलता से वह अपनी, सहज-सरलता से अपनी? मधुऋतु की तरु-डाली में-- रूप, रंग, रज, सुरभि, मधुर-मधु, भर कर मुकुलित अंगों में मा! क्या तुम्हें रिझाती है वह? खिल खिल बाल-उमंगों में, हिल मिल हृदय-तरंगों में! -सुमित्रानंदन पंत 2)वसन्त की परी के प्रति / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" आओ, आओ फिर, मेरे बसन्त की परी-- छवि-विभावरी; सिहरो, स्वर से भर भर, अम्बर की सुन्दरी- छबि-विभावरी; बहे फिर चपल ध्वनि-कलकल तरंग, तरल मुक्त नव नव छल के प्रसंग, पूरित-परिमल निर्मल सजल-अंग, शीतल-मुख मेरे तट की निस्तल निझरी-- छबि-विभावरी; निर्जन ज्योत्स्नाचुम्बित वन सघन, सहज समीरण, कली निरावरण आलिंगन दे उभार दे मन, तिरे नृत्य करती मेरी छोटी सी तरी-- छबि-विभावरी; आई है फिर मेरी ’बेला’ की वह बेला ’जुही की कली’ की प्रियतम से परिणय-हेला, तुमसे मेरी निर्जन बातें--सुमिलन मेला, कितने भावों से हर जब हो मन पर विहरी-- छबि-विभावरी; -सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' 3)मलयज का झोंका बुला गया खेलते से स्पर्श से रोम रोम को कंपा गया जागो जागो जागो सखि़ वसन्त आ गया जागो पीपल की सूखी खाल स्निग्ध हो चली सिरिस ने रेशम से वेणी बाँध ली नीम के भी बौर में मिठास देख हँस उठी है कचनार की कली टेसुओं की आरती सजा के बन गयी वधू वनस्थली स्नेह भरे बादलों से व्योम छा गया जागो जागो जागो सखि़ वसन्त आ गया जागो चेत उठी ढीली देह में लहू की धार बेंध गयी मानस को दूर की पुकार गूंज उठा दिग दिगन्त चीन्ह के दुरन्त वह स्वर बार "सुनो सखि! सुनो बन्धु! प्यार ही में यौवन है यौवन में प्यार!" आज मधुदूत निज गीत गा गया जागो जागो जागो सखि वसन्त आ गया, जागो! -अज्ञेय 4) वसंत की अगवानी / नागार्जुन रंग-बिरंगी खिली-अधखिली किसिम-किसिम की गंधों-स्वादों वाली ये मंजरियाँ तरुण आम की डाल-डाल टहनी-टहनी पर झूम रही हैं... चूम रही हैं-- कुसुमाकर को! ऋतुओं के राजाधिराज को !! इनकी इठलाहट अर्पित है छुई-मुई की लोच-लाज को !! तरुण आम की ये मंजरियाँ... उद्धित जग की ये किन्नरियाँ अपने ही कोमल-कच्चे वृन्तों की मनहर सन्धि भंगिमा अनुपल इनमें भरती जाती ललित लास्य की लोल लहरियाँ !! तरुण आम की ये मंजरियाँ !! रंग-बिरंगी खिली-अधखिली... -नागार्जुन 5)बहुत दिनों के बाद खिड़कियाँ खोली हैं ओ वासंती पवन हमारे घर आना! जड़े हुए थे ताले सारे कमरों में धूल भरे थे आले सारे कमरों में उलझन और तनावों के रेशों वाले पुरे हुए थे जले सारे कमरों में बहुत दिनों के बाद साँकलें डोली हैं ओ वासंती पवन हमारे घर आना! एक थकन-सी थी नव भाव तरंगों में मौन उदासी थी वाचाल उमंगों में लेकिन आज समर्पण की भाषा वाले मोहक-मोहक, प्यारे-प्यारे रंगों में बहुत दिनों के बाद ख़ुशबुएँ घोली हैं ओ वासंती पवन हमारे घर आना! पतझर ही पतझर था मन के मधुबन में गहरा सन्नाटा-सा था अंतर्मन में लेकिन अब गीतों की स्वच्छ मुंडेरी पर चिंतन की छत पर, भावों के आँगन में बहुत दिनों के बाद चिरैया बोली हैं ओ वासंती पवन हमारे घर आना! -कुँअर बैचेन 6)आज बसंत की रात, गमन की बात न करना ! धूप बिछाए फूल-बिछौना, बगिय़ा पहने चांदी-सोना, कलियां फेंके जादू-टोना, महक उठे सब पात, हवन की बात न करना ! आज बसंत की रात, गमन की बात न करना ! बौराई अंबवा की डाली, गदराई गेहूं की बाली, सरसों खड़ी बजाए ताली, झूम रहे जल-पात, शयन की बात न करना! आज बसंत की रात, गमन की बात न करना। खिड़की खोल चंद्रमा झांके, चुनरी खींच सितारे टांके, मन करूं तो शोर मचाके, कोयलिया अनखात, गहन की बात न करना! आज बसंत की रात, गमन की बात न करना। नींदिया बैरिन सुधि बिसराई, सेज निगोड़ी करे ढिठाई, तान मारे सौत जुन्हाई, रह-रह प्राण पिरात, चुभन की बात न करना! आज बसंत की रात, गमन की बात न करना। यह पीली चूनर, यह चादर, यह सुंदर छवि, यह रस-गागर, जनम-मरण की यह रज-कांवर, सब भू की सौगा़त, गगन की बात न करना! आज बसंत की रात, गमन की बात न करना। -गोपालदास 'नीरज' 7)आया वसंत आया वसंत छाई जग में शोभा अनंत। सरसों खेतों में उठी फूल बौरें आमों में उठीं झूल बेलों में फूले नये फूल पल में पतझड़ का हुआ अंत आया वसंत आया वसंत। लेकर सुगंध बह रहा पवन हरियाली छाई है बन बन, सुंदर लगता है घर आँगन है आज मधुर सब दिग दिगंत आया वसंत आया वसंत। भौरे गाते हैं नया गान, कोकिला छेड़ती कुहू तान हैं सब जीवों के सुखी प्राण, इस सुख का हो अब नही अंत घर-घर में छाये नित वसंत। -सोहनलाल द्विवेदी

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