Sunday 17 December 2017

ठग कविता


            ठग 
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नीली छतरी लिए खड़ा वो

सबको रिझा रिझा कर जो 

मन में बसता जाता है 

न जाने कैसा है वो ?

सुबह सवरे सब से पहले 

याद वही जो आता है 

मंदिर ,मस्जिद ,चर्च ,गुरुद्वारा 

न जाने कहाँ छुप जाता है ?


मन के साथ आँख मिचौली खेले 

कभी पास तो कभी दूर नज़र आता है 

है ये कैसा ठग जो सबके मन को भाता है  ?

ठग जाने पर भी कोई 

इसकी रपट नहीं लिखवाता है


हर बार खुद ही ठग जाने को 


नीली छतरी के पास जाता है ।


आभा दवे ( 17-12-2017) रविवार












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