अनूगूँज की यादें/आभा दवे
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मेरी ही आवाज अनुगूँज बन
पहाड़ों से टकरा रही थी
मुझको ही लुभा रही थी
नदी की कल -कल में वो
धीरे-धीर से समा रही थी।
धरा के सौंदर्य में मेरे गीतों के स्वर
बार -बार आवाज दे हो रहे थे प्रखर
प्रकृति की नीरवता में खो रहे थे
मानों कुदरत ने उन्हें लिया था धर।
आकाश में इंद्रधनुष छाने लगा था
सतरंगी आभा से लुभाने लगा था
प्यारी सी अनुगूँज ने मन को हर्षाया
मन खुद को ही खुद में पाने लगा था।
आभा दवे
10-10-2020
शनिवार
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