रफ़्तार / आभा दवे
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खुले आसमान के नीचे
धरती की छटा निराली
पर्वत सागर वन- उपवन
नदी की कल -कल मतवाली ।
छू रहे पेड़ आसमान को
सागर विशाल लहरा रहा
सूर्य प्राची से निकल
मंद -मंद मुस्कुरा रहा ।
ढलती शाम बिखेर रही
अपने रूप की लाली
जिसको पीकर झूम रही
मस्त होकर पवन मतवाली ।
वक्त दूर खड़ा निहार रहा
हर पल हर क्षण को बाँध रहा
अपनी गति को न देकर विराम
अपने वेग को कंधे में उठाए
अपनी ही रफ्तार से वह भाग चला ।
आभा दवे
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