धुरी -आभा दवे
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घर की धुरी औरत होती
महकाती अपनी ममता से
जीवन का हर कोना-कोना
सबके सुख में खुद को सुखी पाती
और अपने जीवन को उसी से सहलाती
रूप करुणा का ये सह लेता सब कुछ
तभी तो वह इस दुनिया में देवी कहलाती
अपने दायरे में रहकर घर की धुरी बन
अपने सारे धर्म बखूबी निभाती चली जाती
एक परिधि में रहने का अपना मूल्य चुकाती
संसार में अपना गौरव गान करवाती
अपनी एक अलग पहचान बनाकर
इस धरा पर अपने होने का एहसास कराती ।
आभा दवे
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