*मेरा-तेरा* /आभा दवे
----------
बचपन की यादें जैसे बीती सी रातें
उंगली पकड़कर जब चली थी बाबुल की
आंगन में पग भरती पायल छनकाती
कभी उनके कंधे पर बैठकर देखी थी
दुनिया सारी, मुस्कान बिखेरती प्यारी
समाज के बंधनों से थी अनजान
बाबुल के नाम से ही थी पहचान
उनकी बाँहें झूला झूलाती थी
माँ की लोरी बन जाती थी गुमान
माता -पिता की उंगली पकड़कर
दहलीज पार करती रही
उम्र की हर दौर से गुजरती रही
मायके से ससुराल में जब रखा कदम
मेरा -तेरा के हिस्सों में बटती गई
मायके में मेहमान हो गई
ससुराल की शान हो गई
*मेरा -तेरा* के फर्क को महसूस कर
हर बेटी अपनी एक अलग दुनिया की
पहचान हो गई ।
*आभा दवे*
No comments:
Post a Comment